Monday, January 21, 2013

तेरे नाम

01

कभि कभि इधर युहीं, मैं तुमसे बात करता हूँ;
नहीं हो तुम जो फिर यहाँ, अस्थिर तलाश करता हूँ।

तुम रौशनी में हो बुलंद, तुम हो अँधेरे में बयाँ;
तुम सामने हो यूँ खड़ी, और सामने ही यूँ हवा।

तुम ख्वाब की उनींदी नींद, तुम जागने की गर्म चाय;
तुम बाँधने की पुख्त डोर, तुम भागने के भिन उपाय।

कभि कभि इधर युहीं, मैं तुमसे बात करता हूँ;
नहीं हो तुम जो फिर यहाँ, अस्थिर तलाश करता हूँ।

02


कभि कभि इधर युहीं, ये शब्दों के जाल;
मिलाते हैं मुझसे, कुछ परिचित सवाल।
सवालों के उत्तर, सभी जानता हूँ;
मगर सोच अपनी, नहीं मानता हूँ।
सर ओखली में, मैं नित डालता हूँ,
गिर कर, संभलकर, फिर लिख डालता हूँ।

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