सालों पहले हिन्दी भाषी होने का मूक आतंक मैने बहुत करीब से अनुभव किया था - बंगाल में बड़े होते समय। घर की चारदिवारी के बाहर हिन्दी बोलने में मुझे शर्म आती थी, क्योंकि हिन्दी अप्रवासी मेडों की भाषा थी (बंगाल की नजर में हर हिन्दी भाषी मारवाडी/मेडो था, हर मेडो के पास बहुत पैसा था और ज्यादातर पैसा भोलेभाले स्थानीय का खून चूस कर नाजायज कमाया गया था)।
मेरा निम्न मध्यम वर्गीय बचपन इन काल्पनिक पैसों के सुखद स्पर्श से वंचित रहा। Instead one had to be constantly on one's guard regarding any publicly visible spending, lest the locals (who were of course free to splurge) detect a Hindi belt capitalist :)
I believe Hindi suffered as a language (and a culture) because of being made the rashtrabhasa. It became rigid, sarkari and boring; it became an unfortunate overt symbol of perceived northern expansion; and its native speakers (including yours truly) deserted it in droves, taking its existence and health for granted.
No comments:
Post a Comment